नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।

– मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt)

कैसे बताऊ ??

कैसे बताऊ,
मेरे अन्दर भी तो एक कवि मन बसता है |
सस्ता है,
सब जग हँसता है
लेकिन,
मेरे अन्दर भी तो एक कवि मन बसता है |
मै कवि नहीं हूँ,
नाही कोई लेखक 
फिर भी शब्दों को पिरोने का मन करता है
क्यूकि
मेरे अन्दर भी तो एक कवि मन बसता है |
एक टीस सी आती है
कुछ लिखवा जाती है
अधुरा ही सही
पर क्या करू
मेरे अन्दर भी तो एक कवि मन बसता है |

टुकड़े …. काश ये ..!!


तम्मना थी जो आपकी मेरे उगते हुए बालों को देखने की ,
काश ये समझ पाती कि मै तो उनकी परछाई को देखकर ही जीता हूँ  |
 
कहते हैं वो मुझे जो खुली किताबें, शायद उन्हें पता नहीं वो अपनी उंगलियों की कशक छोड़ जाते हैं  |
 

सच है, ये इश्क नही आशां।

सुना था बहुत, ये इश्क नहीं आशां
बस इतना समझ लिझे, इक आग का
दरिया है और डूब के जाना है।
हंसा था इस पे बहुत मैं,
कैसी आग और कैसा दरिया?
आह! जब गुजरी ख़ुद पे,
तो हँसी नही, आया रोना।
सच है, ये इश्क नही आशां।
शायरों ने भले ही लिखा कुछ
बढाकर, पर लिख दिया वो,
जो मुमकिन नहीं
बयां लफ्जों में करना आशां!!!!!!!!!!